पारख के अंग की वाणी नं. 649,702 का सरलार्थ :- काजी तथा पंडितों ने विचार-विमर्श किया कि राजा सिकंदर को तो सिद्धि दिखाकर प्रभावित कर लिया। यह कुछ करने वाला नहीं है। तब उन्होंने कबीर परमेश्वर जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी।
शास्त्रार्थ में भी काजी-पंडितों की किरकिरी हो गई तो सिकंदर राजा के पास फिर गए और कहा कि आप अपने सामने हमारी तथा कबीर जी की सिद्धि-शक्ति का परीक्षण करो। हमारा मुकाबला कराओ। उस समय भिन्न-भिन्न प्रकार के साधक, कोई कनफटा नाथ परंपरा से, दण्डी स्वामी, सन्यासी, षटदर्शनी वाले बाबा सब इकट्ठे हुए थे जो संत कबीर जी से ईर्ष्या करते थे। हाथों में पत्थर लेकर कबीर जी से कहने लगे कि तू हमारे देवताओं का अपमान करता है। हे जुलाहे! तुझे पत्थर मारेंगे। सिकंदर लोधी के पास जाकर पंडितों तथा मुल्ला-काजियों ने कहा कि कबीर जुलाहा पापी है। उसके दिल में दया नहीं है। वह सबके धर्मों में दोष देखता है। हिन्दुओं से राम-राम नहीं करता तथा मुसलमानों से सलाम भी नहीं करता। कुछ और ही बोलता है। सत साहेब।
संत गरीबदास जी ने तर्क दिया है कि उस काशी नगरी के सब ही नागरिकों की बुद्धि का नाश हो चुका था जो परमात्मा को तो नीच कह रहे थे तथा अपनी गलत साधना को उत्तम बता रहे थे और दयावान कबीर परमेश्वर जी को निर्दयी बता रहे थे। स्वयं जो सर्व व्यसन करते थे, लोगों को ठगते थे, अपने को श्रेष्ठ कह रहे थे।
राजा सिकंदर ने कहा कि आप तथा कबीर एक स्थान पर इकट्ठे होकर अपना एक ही बार फैसला कर लो। बार-बार के झगड़े अच्छे नहीं होते। पंडित तथा अन्य हिन्दू संत एक ओर तथा कबीर जी तथा रविदास जी एक ओर। एक निश्चित स्थान पर आमने-सामने बैठ गए। मध्य में 20 फुट की दूरी रखी गई जहाँ पर पत्थर की सुंदर टुकडि़यों पर देवताओं की मूर्तियाँ रखी थी तथा शर्त रखी गई कि पत्थर की एक शिला (सुंदर चकोर टुकड़ी) पर चारों वेद रखे जाएंगे तथा अन्य शिलाओं पर चाँदी, सोने तथा पत्थर के सालिग्राम (विष्णु तथा लक्ष्मी व गणेश आदि देवताओं की मूर्तियाँ) रखी जाएंगी। जिनकी सत्य भक्ति होगी, उनकी ओर शिला ही चलकर जाएगी।
ऐसा ही किया गया। जब पत्थर की शिला पर देवताओं की मूर्ति रखी और पंडितजन वेद वाणी पढ़ने लगे। उसी समय कुत्ता आया और उन पत्थर के देवताओं के मुख में टाँग उठाकर मूतकर भाग गया। धो-मांजकर साफ करके फिर सजाए। फिर कुत्ता आया, मूत की धार मारकर दौड़ गया। परमेश्वर कबीर जी तथा संत रविदास जी बहुत हँसे। ऐसा तीन बार किया। फिर विशेष सुरक्षा में मूर्ति रखकर पहले पंडितों ने अपनी भक्ति प्रारम्भ की।
हवन किए, वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया, परंतु जिस चौकी (सुसज्जित पत्थर की शिला जिस पर देव मूर्तियाँ रखी थी) टस से मस नहीं हुई। राजा सिकंदर ने कहा कि हे कबीर जी! आप अपनी भक्ति-शक्ति से इन देवताओं को अपनी ओर बुलाओ। कबीर जी ने कहा कि राजन! जब उच्च जाति के स्वच्छ वस्त्र धारण किए हुए स्नान किए हुए पंडितों से देवता अपनी ओर नहीं बुलाए गए तो मुझ शुद्र के पास इनके देवता कैसे आएँगे? सिकंदर लोधी बादशाह ने कहा कि हे कबीर जी! आपकी सच्ची भक्ति है। आप इन देवताओं को बुलाओ।
कबीर जी ने सत्यनाम का श्वांस से जाप किया तथा रविदास के साथ अपनी महिमा के शब्द गाने लगे। उसी समय पत्थर की शिला तथा उन पर रखे पत्थर, पीतल के देवता अपने आप सरक कर (धीरे-धीरे चलकर) सब कबीर जी की गोद में बैठ गए। यह देखकर पंडित जी उन अठारह बोध वाली पुस्तकों (चारों वेद, पुरण, छः शास्त्र, उपनिषद आदि कुल अठारह बोध यानि ज्ञान की पुस्तकें मानी गई हैं, को) वहीं पटककर चले पड़े क्योंकि उनको कुत्ते के मूत की बूँदें (छींटें) लग गई थी।
सब उपस्थित नकली विद्वान विचार करने लगे कि कबीर जुलाहे यानि शुद्र जाति वाले के पास भक्ति कैसे गई? परंतु वे अभिमानी-बेईमान अज्ञानी पंडित तथा काजी-मुल्ला व अन्य संत फिर भी परमात्मा के चरणों में नहीं गिरे।
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