होली वसंत ऋतु
में मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस वर्ष होली 21 मार्च को मनाई
जा रही है। यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा
जाने वाला यह पर्व दो दिन मनाया जाता है। प्रथम दिन होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, लोग एक दूसरे पर रंग,
अबीर-गुलाल
इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत
गाते हैं और घर-घर जा कर अपने पड़ोसी, दोस्तों और रिश्तेदारों
को रंग लगाते हैं।
प्रचलन अनुसार
होली के पर्व से एक दिन पहले होलिका दहन में लोग गोबर के उपलों के ढेर पर लकड़ियों
का दहन कर उसके आसपास चक्कर काटते हुए होलिका को माता रूप में मानते हुए अपने घर
परिवार की सलामती की दुआ करते हैं। विचार कीजिए जो होलिका वरदान प्राप्त होने के
बावजूद अपनी रक्षा न कर सकी वह आपकी और आपके परिवार की रक्षा कैसे करेगी? मां का स्वभाव ममता और प्रेम भरा होता है जिस होलिका को
अपने भाई के पुत्र को अग्नि में जला देने की ग्लानि नहीं थी वह आप पर कौन सी दया
और ममता न्यौछावर करेगी।
हिरण्यकश्यप जैसी भक्ति करने वालों को मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले, मूर्ख बताया है।:--
विष्णुपुराण में
वर्णित एक कथा के अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति
के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु रजोगुण
के देवता ब्रह्मा का उपासक था। उसने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न
करके यह वरदान प्राप्त किया था कि, “न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सके, न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सके न
रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र” के प्रहार से
ताकि उसके प्राणों को कोई न छीन सके। इस वरदान को पाकर वह अहंकारी बन गया था और वह
अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य भी छीन लिया और तीनों लोकों को
प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें।
उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया था। परंतु परमात्मा ने उसके
घर खंभ प्रहलाद भक्त का जन्म किया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद
वह विष्णु की पूजा करता रहा। अंहकार के कारण हिरणयकश्यप कहता था कोई भी विष्णु की
उपासना नहीं करेगा और सभी केवल मेरे नाम हिरण्यकशिपु का जाप करेंगे। उसने अपने
बेटे प्रहलाद से भी हिरण्यकशिपु नाम की रट लगाने को कहा। प्रहलाद ने कहा पिताजी आप
भगवान नहीं हैं। अपने पुत्र से चिढ़ कर हिरण्यकश्यप राक्षस ने उसे मारने के लिए कई
यात्नाएं दी परंतु उसकी हर बार रक्षा हुई। क्रोधित हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन
होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में बैठ
जाए क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने
प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर
होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म
कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा।
कबीर परमेश्वर ने कहा है कोई भी भक्त
जो किसी भी जन्म में मेरी भक्ति करता है मैं उसका बाल भी बांका नहीं होने देता।
उसी खंभे से कबीर
परमेश्वर नरसिंह रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट
पर, गोधूलि बेला में जब न दिन
था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे
तेज़ नाखूनों से, जो न अस्त्र थे न शस्त्र
थे, मार डाला। जिस भक्त की
जिस भगवान में जैसी आस्था होती है परमात्मा उसी रूप में प्रकट होकर अपने भक्त की
रक्षा करते हैं। यदि ऐसा न हो तो परमात्मा पर से मनुष्यों का विश्वास उठ जाए।
परमात्मा अपने पर से भक्त की आस्था नहीं टूटने देता। सूक्ष्म वेद में लिखा
है,
हिरण्यकशिपु छाती तुड़वाई, ब्राह्मण बाणा कर्म कसाई।
इस प्रकार
हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त
हुआ।
विष्णु उपासक आज
तक कबीर परमेश्वर के नरसिंह रूप को विष्णु भगवान समझने की भूल में पड़े हुए हैं।
गीता अध्याय 17 का श्लोक 5
:--जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मन माना घोर तप को तपते
हैं तथा पाखण्ड और अहंकार से युक्त एवं कामना के आसक्ति और भक्ति बल के अभिमान से
भी युक्त हैं। वे सर्व साधु-महात्मा सतोगुण श्री विष्णु तथा तमोगुण श्री शिव जी के
उपासक हैं जिनकी भक्ति करने वालों को गीता अध्याय 7, श्लोक 12-15 तथा 20-23 में राक्षस स्वभाव को
धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले,
मूर्ख बताया है।
प्रथम तो इनकी साधना शास्त्रविधि के विपरीत है।
अन्य लोक मान्यता अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना
नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा
में, बरसाने और वृंदावन के लोग
असली राम को विसार कर आज भी अज्ञानता और अविश्वास में जी रहे हैं और यहां अब भी
गुलाल, फूल, पानी, लट्ठ मार होली खेलते हैं।
यहां लोग विदेशों से होली खेलने आते हैं क्योंकि रंगों की होली का कोई आध्यात्मिक
औचित्य नहीं है यह केवल सांस्कृतिक त्यौहार भर है।
होली और अन्य त्यौहार मनाने
यदि इतने ही आवश्यक होते हैं तो जब घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो खुशी के
गुब्बारे क्यों नहीं मारे जाते, गालों पर गुलाल क्यों
नहीं रगड़ा जाता। वध हुआ था हिरण्यकश्यप का तो होली पर भांग पीने का, अश्लील फिल्मी गीतों पर नाचने गाने, पत्ते खेलने का रिवाज कहां से आया। लड़कियों और महिलाओं से
अभद्रतापूर्ण व्यवहार करने की प्रथा तो उस समय भी नहीं निभाई गई होगी जब हिरण्यकश्यप
और पूतना वध हुआ था। लोग होली का असली मर्म न समझ इसे त्यौहार रूप में
मनाकर अपना समय, धन और शरीर तीनों व्यर्थ
गंवा रहे हैं। आज मनाई जाने वाली अश्लील होली के त्यौहार से न तो सामाजिक और न ही
व्यक्तिगत लाभ हो रहा है।
“समर्थ का शरणा गहो, रंग होरी हो।
कदै न हो अकाज राम रंग होरी हो।।“
असली होली तो राम के नाम
से मनाई जाती है जब सुरति और निरति दोनों परमपिता कुल के सिरजनहार एक मालिक पर
ध्यान लगाती हैं फिर हर क्षण होली जैसा प्रतीत होता है। होली पर रंग खेलने के नकली
स्वांग से मन तो प्रसन्न हो सकता है परंतु आत्मा नहीं। आत्मा को तो अपने निज घर
पहुंच कर परमात्मा से मिलने की आस होनी चाहिए।
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!! जय हो बंदिछोड़ की
!!
जय हो बन्दीछोड़ कि
ReplyDeleteजी सत साहेब !! जय हो बंदिछोंड़ की !!
Deleteजी हमनें "ज्ञान गंगा" पुस्तक पढ़ा हैं एक दफा लगा की सब बकवाश हैं पर जब मैंने प्रमाणों को अपनों आखों से देखा तो अचम्भित हो गया
ReplyDeleteजी जिसको भी विश्वाश नहीं है वो पुस्तक माँगा कर पढ़ ले जी Free में मिलती हैं
Jeevan saver gaya bandhichhor ki daya sse.speechless.
ReplyDeleteजय हो बंदी छोङ की
ReplyDeleteSat saheb
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