पवित्र सद्ग्रन्थों से पूर्ण संत की पहचान :---
वेदों, गीता जी आदि पवित्र सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि
जब-जब धर्म की हानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओं द्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया
गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान
के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार
समझाता है। उसकी पहचान होती है कि वर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े
होकर राजा व प्रजा को गुमराह करके उसके ऊपर अत्याचार करवाते हैं।
कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि :-
जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।
कबीर साहेब अपने
प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति
मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।
वह संत सभी धर्म
ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा :--
प्रमाण सतगुरु
गरीबदास जी की वाणी में ---
“सतगुरु के लक्षण
कहूं, मधूरे बैन विनोद ।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध ।।“
सतगुरु गरीबदास
जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी
ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। यजुर्वेद अध्याय
19 मंत्र 25, 26 में लिखा है कि वेदों
के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुरा करके
विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के
देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारक संत होता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25
अनुवाद :- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः)
वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः)
आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को
(उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक
विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना
जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः)
औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा)
दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे
(सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण
सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।
भावार्थ :- तत्वदर्शी सन्त वह होता
है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण
परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26
अनुवाद :- वह पूर्ण सन्त तीन समय
की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के
उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व
देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता
है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के
मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित
(सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्)
पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने
को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।
भावार्थ :- जिस पूर्ण सन्त के विषय
में मन्त्र 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को)
साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा, दिन के मध्य को सर्व
देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने
को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 30
अनुवाद :- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का
व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक
(दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण
सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को
(आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले
लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा
से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया)
श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी
परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।
भावार्थ :- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति
को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का
सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका
शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस
से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति
होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं
फिरेगा।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू
बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण ।।
वह संत तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन :-
कबीर सागर में “अमर मूल” बोध सागर पृष्ठ 265 :---
तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह
दीन्हा।।
धर्मदास मैं कहो बिचारी,
जिहिते निबहै सब
संसारी।।
प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु
तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द
प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान
अगाध सुनावै।।3।।
दोबारा फिर समझाया है ---
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।
जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।।
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।
उपरोक्त वाणी से
स्पष्ट है कि कडि़हार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नाम तक प्रदान करता है
तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीर सागर में तो
प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेव तथा परमेश्वर
कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी जो हमारे को शुरु से ही
तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं।
हमारे गुरुदेव तत्वदर्शी
संत “रामपाल जी महाराज” प्रथम बार में “श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्री जी, श्री लक्ष्मी
विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व
माता शेरांवाली” का नाम जाप देते हैं। जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों
में होता है। “मूलाधार” चक्र में श्री गणेश जी का वास, “स्वाद” चक्र में
ब्रह्मा सावित्री जी का वास, “नाभि” चक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, “हृदय” चक्र में
शंकर पार्वती जी का वास, “कंठ” चक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब
देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्र होते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान
नहीं है। इन मंत्रों के जाप से ये पांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने
के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनता है।
सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:--
पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ।
ॐ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।।
भावार्थ :- पांच नाम जो गुझ गायत्री है। इनका जाप करके
आत्मा को जागृत करो।
दूसरी बार में “दो अक्षर” का
जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता
है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है।
तीसरी बार में सारनाम देते हैं
जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है।
श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 17 का श्लोक 23 :--
अनुवाद :- (ॐ) ब्रह्म का (तत्) यह
सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्म का (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन
प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) संकेत (स्मृतः)
कहा है (च) और (पुरा) सृष्टीके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन)
उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे।
भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को
प्राप्त करने का ॐ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्र जाप स्मरण करने का निर्देश है।
इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो।
संख्या न. 822
सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 (संत रामपाल दास द्वारा
भाषा-भाष्य) :-
शब्दार्थ :- (पूव्र्यः) सनातन अर्थात्
अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में
प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा
को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्र अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्र करके (जनयन्)
जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण
अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्)
अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से (परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता
है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को
(असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।
भावार्थ :- इस मन्त्र में स्पष्ट
किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट
होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा
भक्त को पवित्रकरके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख
प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में
है |
श्रीमद्भागवत गीता
अध्याय 4 श्लोक नं. 34 :-- में कहा है तथा
श्रीमद्भागवत गीता
अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1
श्रीमद्भागवत गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 4:-
तत्वदर्शी सन्त
की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस
परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में
नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना
हुई है।
विशेष
:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पूर्ण
तत्वदर्शी संत कौन तथा कैसा होता है पवित्र चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण
परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है
तथा तीन मंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।
श्रीमद्भागवत गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 4:-
तत्वदर्शी सन्त
की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस
परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में
नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना
हुई है।
विशेष
:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पूर्ण
तत्वदर्शी संत कौन तथा कैसा होता है पवित्र चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण
परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है
तथा तीन मंत्र के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान।
ReplyDeleteगुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण ।।